मैंने अक्सर ही ऊँची सीढियों पे सपनो को बिखरते देखा ,
बहारो की रुत में भी चमन को उजड़ते देखा ,
वहां हर आदमी को ख़ुद से ही उलझते देखा ,
जी रहे हैं शौक से एक झूठी सी जिंदगी को वो,
क्या किसी ने इंसानको जीते जी मरते देखा
रिश्ते हैं कुछ जहाँ में देते है जो साथ अक्सर,
मगर कितनो को उनको पहचानते देखा?
घिरे जा रहे हैं ,भंवर ही भंवर में,
मैंने कम को ही यहाँ हाथ चलाते देखा ?
चढ़ रहा था जब यहाँ मैं बुलंदी की सीढियाँ,
मुझे देखकर हर शख्स को हाथ हिलाते देखा
फ़िर गिरा धडाम से जब उस शिखर से मैं,
उन्ही लोगो को मैंने मुस्कुराते देखा
"अंजुम" ने बुलंदी पे इंसानों को बहकते देखा ,
ख़ुद को ही खोते देखा ,ख़ुद से ही लड़ते देखा
- कुलदीप अन्जुम
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