Sunday, April 22, 2012


एक *लारवा ने 
कितनी कोशिश की 
बार बार गिरा ...उठा 
किन्तु बन न सका तितली 
वक़्त से पहले .....

- मत्शुओ बाशो 

* कैटरपिलर 

अनुवाद  -कुलदीप अंजुम 
देश के सभी मजदूरों को समर्पित ....दिल्ली में बसे बिहारी मजदूर भाईओ    के हवाले से ....एक बहुत पुरानी मुक्तसर नज़्म ...

अपने घर से दूर
कहीं और कमाता खाता
जब चाहे तब  दुत्कार सहता
बेमौसम पीटा जाता
भगाया जाता 
सारी असुविधाओं का ज़िम्मेदार
सम्मान से 

अनजान

अपने रहनुँमाओ द्वारा  बिका हुआ 
सब कुछ सहने को मजबूर
भूख से कुचला हुआ
जमीर लिए
देश के निर्माण को समर्पित
कोई बिहारी

- कुलदीप अंजुम 

Sunday, April 15, 2012


टिटहरियां आज भी चीखती हैं ...
मजबूर हैं अगस्त्य 
 घट गयी है उनकी कूबत 
नहीं पी सकते समुद्र .......!!

-कुलदीप अंजुम 

मैं भी बुन सकता हूँ लफ्ज़ 
तुमसे कहीं बेहतर .....

पर मुझे भूख लगती है !


- कुलदीप अंजुम 
मैं अक्सर 
उलझ जाता हूँ 
खुद से ही ....
और खो देता हूँ 
दूसरों के विरोध का 
नैतिक अधिकार ....!


- कुलदीप अंजुम 




मर जाता है इन्सान 
समझ आते ही ....
दुनिया की...!!

- कुलदीप अंजुम