Sunday, May 31, 2009

शेर


कैसे कह दू की जशन की कोई कीमत नहीं होती
वर्ना क्यों हमारी एक पल की ख़ुशी उम्र भर रोती


-कुलदीप अन्जुम

Friday, May 29, 2009


क्या ग़म भी इंसानों के कद के हिसाब से हल्के भारी होते हैं ?

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गर मर जाए कोई ख्याति लब्ध
कंठ तक गन्दगी में संलिप्त
तो दुःख कुछ भारी होता है
मीडिया कवर करता है
मंत्री संदेश भेजता है
या ख़ुद आता है
कुछ फूल लेकर
कशीदे काढता है
घिनौने कारनामो को छुपाते हुए
बुरे को अच्छा बताते हुए

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अब दूसरा परिदृश्य देखिये
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गर मर जाए किसी झोपडी का कोई गरीब
उम्र भर रोटी जिसे ना हुई हो नसीब
उसकी बिलखती विधवा को देखकर
कसे जाते हैं तंज
देखो इसकी नौटंकी
कुलटा है यह
उसके आंसू का इतना बड़ा तिरस्कार
नीचता का सरे आम सत्कार
भले मरा हो बीमारी और भुखमरी से
इलजाम तो शराब के सर ही आना है
लोग उत्सुक हैं यहाँ
उसकी मजबूरियों के किस्से सुनाने को
उसे बेफिजूल बताने को
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-कुलदीप अन्जुम

Thursday, May 28, 2009

मैंने रोने को कहा तो खिल खिला कर हंस दिये
जब सबब पूछा तो बोले मंजर तेरी बर्बादी का है

Tuesday, May 26, 2009

"अंजुम" तुझे आता क्या है ?


गलतियाँ करके आसमान को तकता क्या है
जो उधर रहता है, उससे तू डरता क्या है

वह भी तो था कभी हमारी ही तरह ,
आज ऊँचाई पे है तो बात बदलता क्या है
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ये तो वो चीज है जो दबा के रख अपने सीने में ,
अपना किस्सा-ऐ-मोहब्बत दुनिया को सुनाता क्या है

यूँ तो हमको भी हैं उससे शिकवे कई ,
पर देखकर उसको मुस्कुराने में मेरा जाता क्या है

मुझे भरोसा है तुझपे बेपनाह ऐ जानेमन !
तू आज महफिलों में प्यार जताता क्या है

एक अरसा हो गया तुझसे मिले कर ले ऐतवार ,
पहली मुलाक़ात कि तरह अब भी आजमाता क्या है
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देख रहा है सब कुछ वह चुपचाप यूँ ही ऊपर से,
तू मंदिरों मस्जिद में शोर मचाता क्या है

आंधियां आ रही हैं बड़ी दूर से अरमान लेकर ,
तू पहले से ही अपने चिरागों को बुझाता क्या है

गर हिम्मत है तो अमीर औ काजियों को सता के दिखा ,
तू भी किसी मजबूर को आज सताता क्या है

गर आता है मज़ा तुझको भी सितम ढाने में ,
तो अपना घर फूंक , औरो के जलाता क्या है
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खोल दे बेफिक्र होकर आज मेरी कमजोरियों को ,
तू भी गैरों की तरह बात बनाता क्या है

पास आना है मेरे तो क्यों न आज खुल के मिल ,
दूर से देखकर हाथ हिलाता क्या है

जिनको सिखा दिया यहाँ हमने जिंदगी का हुनर ,
वही पूछते हैं आज कि "अंजुम" तुझे आता क्या है ?


- कुलदीप अन्जुम

शेर


शेरो-शायरी की दुनिया में इस्तकवाल करता हूँ ,
शायर हू यारों अल्फाजो से प्यार करता हूँ


- कुलदीप अन्जुम

Monday, May 25, 2009

शेर


इन्सां की अपनी सीमाएं , इन्सां की अपनी मजबूरी
फ़िर भी यारो इस दुनिया में खुलकर जीना बहुत ज़रूरी


- कुलदीप अन्जुम

साहब ये हिंदुस्तान है


दो कौडियों के मोल में बिकता यहाँ इमान है
साहब ये हिंदुस्तान है

मौलवी यहाँ कत्ल करके दे रहा अजान है,
साहब ये हिंदुस्तान है

भूख से मर रहा इस देश किसान है,
साहब ये हिंदुस्तान है

धमाको से आज हर शहर बयाबान है
साहब ये हिंदुस्तान है

धर्म और जाति यहाँ वोट कि दुकान है
साहब ये हिन्दुस्तान है

बोझ के तले दबा आम आदमी हलकान है
साहब ये हिंदुस्तान है

देश के शहीदों का हो रहा अपमान है
साहब ये हिंदुस्तान है

धोखाधडी ही यहाँ हर सियासतदां कि पहचान है
साहब ये हिंदुस्तान है

आज यहाँ गुलशनो से छिन गयी मुस्कान है
साहब ये हिंदुस्तान
है

ढल जाओ तो बेहतर है वर्ना मुश्किलें जान है
साहब ये हिंदुस्तान है

देखकर अपना वतन अंजुम हुआ हैरान है
ये कैसा हिंदुस्तान है ?

Tuesday, May 19, 2009

मुस्कुराना चाहता हू.....

(माफ़ कीजियेगा ये मेरी पहली रचना थी ,जो आज से करीब २ साल पहले मैंने लिखी थी ,इसलिए अनगढ़ पन स्पष्ट परिलक्षित होता है )

मयकदे में चैन अब मिलता नही है,
तेरे दामन का सहारा चाहता हूँ ,
हे प्रिये ! मैं मुस्कुराना चाहता हूँ

अब नही मुझको यकीं इन सब्जबागों में कहीं,
चैन अब मिलता नही रंगी खयालो में कही,
अब तो बस रुस्बायिओं में डूब जाना चाहता हूँ ,

सो रहा हूँ गर्दे-ग़म में मैं दबा एक वक्त से,
मानकर कुदरत की मर्ज़ी और ख़ुद के लुफ्त से,
अब मैं काफिर वक्त को भी आजमाना चाहता हूँ ,

मायने क्या हैं वफ़ा के ये मुझे आता नही ,
हो गई है इन्तिहाँ अब ग़म सहा जाता नही,
किसी भी रस्म में बंधकर मुझको अब नही जीना

अब तो हर अंदाज बस मैं सूफियाना चाहता हूँ ,
मैं तो "अंजुम " तैरकर भी डूब जाना चाहता हूँ


नज़्म : मैंने क्या क्या नही देखा ......

मैंने अक्सर ही ऊँची सीढियों पे सपनो को बिखरते देखा ,

बहारो की रुत में भी चमन को उजड़ते देखा ,

वहां हर आदमी को ख़ुद से ही उलझते देखा ,

जी रहे हैं शौक से एक झूठी सी जिंदगी को वो,

क्या किसी ने इंसानको जीते जी मरते देखा

रिश्ते हैं कुछ जहाँ में देते है जो साथ अक्सर,

मगर कितनो को उनको पहचानते देखा?

घिरे जा रहे हैं ,भंवर ही भंवर में,

मैंने कम को ही यहाँ हाथ चलाते देखा ?

चढ़ रहा था जब यहाँ मैं बुलंदी की सीढियाँ,

मुझे देखकर हर शख्स को हाथ हिलाते देखा

फ़िर गिरा धडाम से जब उस शिखर से मैं,

उन्ही लोगो को मैंने मुस्कुराते देखा

"अंजुम" ने बुलंदी पे इंसानों को बहकते देखा ,

ख़ुद को ही खोते देखा ,ख़ुद से ही लड़ते देखा

- कुलदीप अन्जुम

क्यों याद रखू मैं मधुशाला ?


बच्चन तुम ही मुझको बतलाओ ,
क्यों याद रखू मैं मधुशाला ?

तुम दर्द गरीबो का भूले ,
बस याद रही साकी बाला ?

दुनिया थी भूख से जूझ रही ,
तुम मांग रहे थे क्यों हाला?

कवियों की आंख में आंसू थे?
तुम बैठे थे लेकर प्याला?

फ़िर तुम भी बतलाओ भाई,
क्यों याद रखू मैं मधुशाला?


- कुलदीप अन्जुम

चारो तरफ़ कुहासा है

आशा का हर दीप बुझ गया ,
चारो तरफ़ कुहासा है

मानो हर कोने में खड़ा आज ,
चीख रहा दुर्वासा है

ऐसी मनहूसी है छाई,
मानो विधवा हो गई धरती

मानवता आधे वस्त्रो में ,
भाग रही है आज कलपती


- कुलदीप अन्जुम

Monday, May 11, 2009

क्या है परेशानी ............


ऐ खुदा! आज तू इतना बेईमान सा क्यों है ?
तेरे साये में हर शख्स परेशान सा क्यों है ?

तू ही मालिक है , ऐसा सुना है मैंने कहीं,
फ़िर हर इन्सान मेरा दुश्मने -जान सा क्यों है ?

क्यों सताता रहा है तू मुझको अक्सर ,
जान कर सब कुछ भी अनजान सा क्यों है?

अब तो हटा दो मेरे सर से गमो कि चादर को,
आज हर दर्द मुझपे इतना निगहेबान सा क्यों है ?

चाहता हू मैं भी दो घडी हंसकर यहाँ जीना ,
ले रहा हर पल मेरा इम्तिहान सा क्यों है ?

अब तो हर जख्म तेरी बफाओं को दफ़न करता है ,
फिर भी मुझे भरोसा-ऐ-बेमिसाल सा क्यों है?
तेरे दर को जाती थीं जो राहें मुश्किल ,
आज जाना वो इतनी सुनसान सी क्यों हैं?

यूँ तो मैं चाहता हू बन जाना कोई काफिर "अंजुम"
फिर भी जो मुझमे जिंदा है वोह , इन्सान सा क्यों है?
- कुलदीप अन्जुम

Wednesday, May 6, 2009

हर खुशी से अब मैं दूर हूँ

हर किसी के ग़म में शरीक हूँ ,
हर खुशी से अब मैं दूर हूँ ,

ताकता हूँ खड़े -खड़े ,
कि मैं बहुत मजबूर हूँ


- कुलदीप अन्जुम

Tuesday, May 5, 2009

मेरी बहन " निहारिका " को श्रद्धांजलि...............



मुझे मेरे गुनाहों की सजा तो दो कोई ,
मैं एक लाश हू ,मुझे जरा दफना दो कोई,

क्या मिलेगा तुझे इस बेरहम खुदाई से,
अब किसी की भी न बंदगी करो कोई ,

हमने हमेशा ही खुद को रोते हुए देखा ,
फिर भी दिलकशी की जरुरत न मुझे कोई ,

उसे अब इल्म नहीं रहा अच्छाई और बुराई का,
उसकी रहबरी पे यकीं न करो कोई ,

अब आदत सी हो गयी है मुझको गमो की ,
रहमत न चाहिए मुझको और न भलाई कोई ,

चीखा था अपने ग़मों से तड़पकर जब "अंजुम" ,
दूर तलक मुझको न पड़ा दिखाई कोई


- कुलदीप अन्जुम