Sunday, August 23, 2009

शायद इसीलिए एकाकी हूँ......



दोस्तों एक कविता लिखी , तो सोचा कि आप सब को पढाया जाये ,अब आप कहेंगे कि ये भी कोई कविता है ......भाई हम ऐसा ही लिख पाते हैं , शब्दों का मायाजाल बनाना अपने बस की बात नहीं ....खैर आप ही ईमानदारी से बताएं कि कैसी है ?


गली के कोलाहल ने
जगा ही दिया कच्ची नींद से
झाँककर देखा तो
गली में हुडदंग था
रँगे चेहरे कह रहे थे कि
शायद होली का त्यौहार है
मन में कुंठा सी जाग उठी
नौकरानी तीन दिन पहले ही
काम छोड़कर जा चुकी थी
घर अस्त व्यस्त था
खैर ये तो अब की बात है
वैसे तो ऐसा हुए एक मुद्दत हो गयी
शायद उनके जाने के बाद से ही
खैर छोडो बात कुछ भी नहीं
उठा, खुद ही चाय बनाई
और लेट सा गया

बगीचे की आराम कुर्सी पर
आंखे खुद ब खुद मुंद सी गयीं
आज तो किसी का फोन भी नहीं आया ,
जो कुछ याद दिलाता
मैं अमेरिका में रह रहे बच्चों को

क्रिसमस की शुभकामनाये तो याद दे चुका था
पर शायद .............
लेटे लेटे दिमाग की पोटली खोली
और एक एक कर निकालने लगा
यादो के छोटे छोटे कंकर
हर एक को एक हाथ से
दुसरे हाथ में ले जाता
शायद वजन तौलने की कोशिश
अच्छाई और बुराई के तराजू से
धीरे धीरे पोटली खाली हो गयी
आजतक जीता रहा शायद
केवल अपने और अपनों के लिए ही
" नही खोया मैं
गली के कोलाहल में
शायद इसीलिए एकाकी हूँ .........."

- कुलदीप अन्जुम

अंजुमन में मेरी वो खामोशी शायद उस वक़्त की जरुरत थी ...


तुझसे इकरार जो किया था कभी, कोई रब्त नहीं वहशत थी
अंजुमन में मेरी वो खामोशी शायद उस वक़्त की जरुरत थी

वो बदल गया इज्जत औ दौलत देखकर तो इतनी हैरत क्या
रंग बदलना, तो उस महफ़िल के हर शख्श की फितरत थी

बिखर गया जो मैं खुद ब खुद ही , तो दोष किसको दूँ
ये कोई और नहीं शायद, मेरे अपने किये की दहशत थी

गम दिए किसी ने तो उससे मैं कोई शिकवा भी कैसे करूँ
ऐ दोस्त मुझे भी तो अपना घर सजाने की बड़ी हसरत थी

यारा वक़्त वो चीज नहीं , ,,,,,जो हर पल किसी के साथ रहे
जो आज बिकते हैं सरे बाज़ार, कभी उनकी भी बड़ी इज्जत थी

- कुलदीप अन्जुम

Friday, August 7, 2009

एक शेर ......


तुझसे इकरार जो किया था कभी, कोई रब्त नहीं वहशत थी
अंजुमन में मेरी वो खामोशी शायद उस वक़्त की जरुरत थी

- कुलदीप अन्जुम

Monday, August 3, 2009

कलियुग का रावण हूँ..........


आज सागर........
मुफ्त में ही अकड़ रहा था ।
बौखलाया हुआ.....
सा दीख रहा था ॥
देख कर आलम
बात कुछ भी ...
समझ नहीं आई
अंत में ......
दे ही दी .....
मैंने उसको उसकी
विशालता की दुहाई

कहा ....
सुनो
ऐ देवता ऐ गहराई
तुम तो मर्यादा के प्रतीक हो
कहां गयी तुम्हारी ......

गंभीरता ?
क्यों धारण कर रखी है ..........
अधीरता ?
कितने बदल गए हो तुम ?
वोह अब खामोश हो गया
और धीरे से बुदबुदाया
मैं हूँ वही वीर ....
जिसने कर दिया था
राम तक को अधीर
क्या मैं ही बदला
नहीं बदले तुम .........?
क्या अब भी ...
वही मर्यादा पुरुषोत्तम हो....?
अब मैं मौन था ...
की जेहन में ....
जबाब कौंधा ....
" मैं तो
कलियुग का रावण हूँ
बल बुद्धि से युक्त
किन्तु.....
विवेक से हीन ........" ॥

-कुलदीप अन्जुम