Saturday, July 5, 2014

मछुआरन है ज़िन्दगी ......

अक्टूबर जैसे नर्म-सर्द महीने में गर कोई तीखी आवाज़ सवेरे की घनघोर नींद के आड़े जाये तो गुस्सा आना लाज़िम है !गुस्सा पिया भी जा सकता है अगर उसकी कुछ वाज़िब वजूहात हों ! बहरहाल ये आवाज़ बाबू जी की थी जो बिला नागा थी ! वो सुबह तड़के  चार बजे उठ बैठते थे ! कुल्ला-दतून से निपटते ही करीब पाँच बजते-बजते आस-पास के गांवों के दस-एक किसान उनकी खटिया के इर्द-गिर्द जमा हो जाते ! बात अस्सी के दशक के शुरुआत की है ! खेती आमतौर पर हल-बैल से होती थी ! तहसील भर में कोई दो चार ट्रैक्टर ! उनमे से एक हमारे पास भी था , नया नया , मज़बूत एस्कार्ट -३५ !

सुबह-सुबह भीड़  जमा होने और मेरी नींद ख़राब होने दोनों का सबब यही ट्रैक्टर था ! गुस्सा गटकते हुए मैं उठा, आँखे मिलमिलायीं और चौपाल की छत से नीचे उतरा ! जमम बुजुर्गों से राम जुहार की  और फिर एक कड़क आवाज़ - बिरजू पाण्डेय साढ़े चार के आये हैं , पहले इनके खेत में !" जी कसमसाया फिर मुस्कुराया और बगल के सरकारी नल की ओर लपका ! दस -पंद्रह मिनट में कुल्ला-दातून से फ़ारिग़ होक घर की ओर चला ! चबूतरे की सीढ़ियों पर पहला कदम रखा ही था कि  गली के उस पार  वाले दरवाज़े से मिसराइन भन्नाते हुई निकलीं ! उम्र कुछ अस्सी के आसपास  मगर तबीयत एकदम मज़बूत ! मैं  अपने गुम में था सो मिसराइन की हाल फ़िक्र ले पाया ! मिसराइन एकदम भौंचक्क , रोज तो रुक के हाल चाल लेता था कमबख्त , आज कुछ भी नहीं , नाकारा कहीं का ! मिसराइन का दुःख अब दुगना हो गया !



हलके चाय नाश्ते के बाद लौटा  तो बिरजू पाण्डेय ने लपक लिया - ' बेटा चाय हमारे यहाँ पी लेना, जल्दी चले चलो , आलू के लिए देरी हो रही है और फिर ये भीड़ भी तो देखो" !

ट्रैक्टर स्टार्ट करके हल जोड़ा और सीधे उनके खेत में ! पंद्रह बीस मिनट में बुजुर्ग बिरजू चाय ले आये ! इस बार बढ़िया सफ़ेद चीनी के कप में ! पिछली दफे कांच के गिलास में थी जिसे मैंने झल्लाकर बिरजू के सामने ही पटक दिया था ! पाण्डे समझदार थे पर पंडाइन जाँत-पांत की इकलौती ठेकेदार ! खैर रोज की तरह दिन गुजारा ! शाम कुछ गहराई तो तम्बाकू खाने मिसिर के पास जा बैठा ! मिसी गांव के सबसे खडूस बूढ़ों में थे ! उम्र नब्बे के करीब पर शरीर मज़बूत, पूरी ज़िन्दगी पहलवानी की और अव्वल दर्जे के लठैत ! मिसराइन से कभी बनी नहीं ! अजब परिवार था - चार लड़के, बहुएं और ढेरों नाती-पोते और आलम ये कि  मिसिर अलग पकाते, मिसिराइन अलग. लड़के बहुएं, बच्चे सभी अलग !



गांव के उत्तरी कोने पे अगल-बगल तीन चौपालें ! मिसिर की सबसे उत्तर में, उसके पूरब  में थोड़ा पीछे हटके दीक्षत महराज और बगल में चुन्नू पंडित ! तीनो बूढ़े शाम को अपनी-अपनी चारपाइयों पर जमे साथ खांसते-खँखारते बीड़ी-तम्बाकू करते और बेफिजूल उठानी बातें करते ! मैं तीनो का अज़ीज था पर मिसिर का कुछ खास !





शाम को मिसिर से जब तम्बाकू ली तो उन्होंने बताया कि  सवेरे बड़ी बहु मिसराइन को कुछ सुना दिया तो मिसराइन अपनी कोठरी छोड़ यहाँ गयीं ! मिसिर को अर्से बाद मिसिराइन पर प्यार आया ! फिर बात आखिर बड़ी बहू की थी सो दोनों ने मिलके बारी-बारी से सब बहुओं को कोसा, मिलकर टिक्कर पकाये ! मिसिर अपनी चौपाल की कोठरी से घी की शीशी ले आये ! बोतल में मेरे ख्याल से साल भर से उतना ही घी था ! मिसिर उसमें एक अरहर की लकड़ी रखते उसे ही रोटी पर मल लेतेफिर दोपहर बाद छोटी बहु हलवा लेके आई  और मिसिराइन को मना ले गयी ! मिसिर फिर अकेले !
 
किस्सा सुनते-सुनते मैं तम्बाकू मल रहा थातो मिसिर ने बीड़ी सुलगा ली !बात कहते-सुनते थोड़ी देर हुई तो दीक्षत और चुन्नू पंडित सो गए ! कटहल के पेड़ पे घुघुआ बोला तो मिसिर ने बीड़ी छोड़ लग्गी से हुलकारा। चौपाल के पिछवाड़े रोती हुई एक बिल्ली को खदेड़ा और एक टिटहरिया को ललकारा। चांदनी में  लटकते बड़े-बड़े कटहल देखे और मुस्कुराये। चेहरा संतुष्टि से सराबोर मानो ज़िन्दगी का तमाम रस इस समय उन कटहलों में उतर आया हो ! मिसिर जब लौटे तो बीड़ी बुझ चुकी थी !दूसरी सुलगाई और बोले तुम भी तो कुछ सुनाओ बाबू ! रात बढ़ चली थी और थके शरीर को नींद की ज़रुरत थी ! मैंने धीरे से मिसिर से मन की बात कही  के पाँच सौ रुपये चाहिए थे ! पाँच सौ उन दिनों बहुत बड़ी रकम थी !



मिसिर ने दो मिनट सोचा, सर खुजाया  ! मिसिर एक नंबर के कंजूस थे ! रूपये पैसे के मामले में मेरे सिवा किसी का रत्ती भर भी भरोसा नहीं करते थे ! बैंक के चक्कर में कभी  पड़े नहीं , उन्हें भरोसा ही नहीं था ! मुझे लालटेन थमाई और कोठरी की ओर बढे ! भूसे में दबी एक संदूकिया निकाली  और मुड़े तुड़े नोटों की एक गद्दी मुझे थमा दी - " जितने लेने हैं ले लो बाकी इसी में रख दो !"
 
मिसिर को गिनना नहीं आता था , मैंने पाँच सौ गिने बाकी मिसिर को थमा दिए ! मिसिर ने संदूकची फिर वहीँ दफना दी !

मिसिर से विदा लेके मैं रास्ते भर यही सोचता रहा के कैसे अबूझ रिश्ते हैं ! एक आदमी औने बेटे बहुओं पर एक पैसे का भरोसा नहीं करता और मेरे हाथ में अपनी ज़िन्दगी भर की कमाई रख देता हैइस बात पर मेरा यक़ीन और पुख्ता हो गया के रिश्ते भी कमाने पड़ते हैं - बनाने पड़ते हैं !



अब तक घर   चुका  था ! थके हारे शरीर को पल भर में गहरी नींद ने दबोच लिया ! एक गहरी नींद चौपाल पर नहीं घर पे  सो सुबह किसी ने नहीं जगाया ! सात बजे खुद से उठा तो घर लगभग खाली ! बाहर निकला तो  मोहल्ला लगभग खाली ! चुन्नू पंडित के नाती से पुछा तो पता चला के रात के तीसरे पहल मिसिर नहीं रहे !

क्या दस साढ़े दस बजे तक तो मुझसे खूब बातें कीं ! दिन एक दम बैठ गया ! कोई मुंह में पानी डालने वाला भी नहीं रहा होगा ! पता चला के तड़के सुबह जब दीक्षत ने  ललकारा तो मिसिर का जबाब नहीं आया ! मैं मिसिर की चौपाल तक पहुँच चूका था ! मिसिर की लाश ज़मीन ले चुकी थी ! खुले मुंह के ठीक ऊपर लगे कटहल और सुथरे हो गए थे !कोठरी का दरवाज़ा खुला था और सामने लटकी शीशी से अरहर की लकड़ी अब भी झांक रही थी ! संदूकची अब भी वही दफ़न थी ! मिसिर के ये उम्र भर के साथी उनकी राह देख रहे थे !


कुलदीप अंजुम 

5 comments:

  1. Bahut khoob.. short, simple yet beautiful....

    ReplyDelete
  2. The characters and the situations reminded me of Phanishwar Nath Renu.
    Descriptive and real!!!!

    KEEP UP THE GOOD WORK!!!

    ReplyDelete
  3. Man ko sukoon dene wali dastaan...aap yaheen ruk kyon gaye?

    ReplyDelete
  4. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete