Saturday, November 21, 2009

खून का रंग..............

.
चलिए बता ही देता हूँ
आज अपनी कुछ पहचान
मैं एक नामचीन सड़क
के किनारे पर
रहता हूँ सपरिवार
बपेशा एक दिहाड़ी मजदूर
वैसे तो जब तक मैं जवां था
गुमां रखता था खुद्दारी का
कमाता खाता खानाबदोश
चल ही रही थी जिंदगी
यकाएक वक़्त की मार
और बूढी काया
ढह गयी बीमारी की
मद्धम बरसात में
तन से निकम्मा होकर
जब खाने के लाले पड़े
भूखे बच्चे तडपने लगे
तो एक दिन
बेचकर अपनी गैरत
बाज़ार से खरीद लाया
कुछ रोटियां
लगाकर घर की इज्जत पर दाव
पर मैं उन्हें चाहकर भी
न निगल सका

उन बची रोटियों को
जब मसीहा ने अपने
निर्मम हाथों से निचोड़ा
आने वाले कल में
तो उनमे से निकला खून
स्याह्पन लिए हुए
लाल खून
जिसकी चमक इतनी फीकी
कि वो किसी को भी,
शर्मिंदा न कर सकी

- कुलदीप अन्जुम

.

4 comments:

  1. बेहद मार्मिक रचना लगी ।

    ReplyDelete
  2. वाह.....कुलदीप जी भाव तो बहुत उम्दा हैं .....सीधे दिल के आर -पार होती हुई रचना ....बधाई .....!!

    ReplyDelete
  3. rula diya aapne... acchi tarah se bhavnao ko ankit kiya hai

    ReplyDelete