Sunday, June 28, 2009

शहर में रह गयी कितनी नफासत जानता हूँ


हो नहीं सकती खुदा कोई मूरत जानता हूँ
आदमी हूँ इंसानियत कि कीमत जानता हूँ

न दो हमको नसीहत ऐ अहले वफ़ा

मौज हूँ फिर भी वफ़ा की सीरत जानता हू

आंख फेर लेने से कुछ भी बदल नहीं जाता
मैं चश्मदीद हूँ शायद हकीक़त जानता हूँ

फिजां में घुल गयी हैं नफरतें न जाने कैसे
शहर में रह गयी कितनी नफासत जानता हूँ

आबाद रहना तुम ऐ मेरी बरबादियों के सबब
ये कौन कर रहा है शरारत जानता हूँ

-कुलदीप अन्जुम

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