अनजान रास्तो पर अनजान काफिले हैं ,
जानते नही कुछ फ़िर भी तो चल पड़े हैं ,
कोई नही है रहबर , न कोई रकीब मेरा ,
हर मोड़ पर यहाँ तो बस अजनबी खड़े हैं ,
न रहजनों का डर है न, कोई खलिश सी दिल में,
हर वक्त काफिले यहाँ लुटते ही जो रहे हैं,
कुछ तो गिला है मुझको फ़िर भी उन दोस्तों से ,
मेरे जनाजों में अक्सर हँसते वो क्यों रहे हैं ?
- कुलदीप अन्जुम
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