दोस्तों वैसे तो छुट्टी पर था लेकिन क्या करें आना पड़ा ...............पिछली ग़ज़ल (मूझे सामाने आराइश बनाया जा रहा है क्यूँ ?.........)से शिकायत थी की उर्दू की जटिलता बढ़ गयी थी इसलिए इसको एकदम आसान शब्दों में लिखा है ...........आपकी प्रतिक्रियाएं ज्यादा चाहूँगा क्युंक ओवर टाइम में कुछ ज्यादा मेहनताना मिलता हैं............
चलो क्यों ना आज अपना आशियाँ जलाया जाये
खुद को करके बर्बाद इस दुनिया को हंसाया जाये
ढूंढ़ रही हैं एक अरसे से बरबादियाँ मुझको
आज उनको खुद ही घर का पता बताया जाये
शायद मुरब्बत है उनको जिंदगी के अंधेरों से
इस अँधेरी रात में चिरागों को बुझाया जाये
साकी ओ मीना अब आ भी जाओ पास मेरे
हिज्र के मारों को अब और ना सताया जाए
कोई नहीं है शिकवा मुझको मेरी रुसवाइयों से
जब तक मुफलिसी को नुमाइश ना बनाया जाये
जला ही देगा एक दिन दुनिया आकर आजिज़
किसी शोले को एक हद तक ही भड़काया जाये
देते रहे हैं अब तलक जिसमें पानी बड़ी ही मौज से
वक़्त की ताकीद अब उसी गुलशन को सुखाया जाये
-कुलदीप अन्जुम
Saturday, July 18, 2009
Saturday, July 11, 2009
मूझे सामाने आराइश बनाया जा रहा है क्यूँ ?............
हमें फिर आज अंजुमन में बुलाया जा रहा है क्यूँ ?
हमारी इल्तिफ़ात पर सवाल उठाया जा रहा है क्यूँ ?
नहीं नाकस नफस अपनी बस नादारी का मारा हूँ
फिर भी हमें तारीक में घुमाया जा रहा है क्यूँ ?
अभी लौटा हूँ हिजरत से खुदाया अब तो बख्शो कुछ
हमी को फिर गिर्दाबो से भिडाया जा रहा है क्यूँ ?
दे दिया आसिम करार हमें बिना किसी अस्बाब के
सजाये अश्फाक में फांसी चढाया जा रहा है क्यूँ ?
हमारा तो हर करम ही उरूजे -अंजुमन को था ,
फिर हमें नालिशे पारदारी बताया जा रहा है क्यूँ ?
ऐसा क्या गज़ब हुआ जो हमने मांग की फिरदौस की
जबरन किसी की तिश्नगी को दबाया जा रहा है क्यूँ ?
जुडा रहने दो जरा मुझको "अन्जुम " मेरे असास से
मूझे सामाने -आराइश ......बनाया जा रहा है क्यूँ ?
- कुलदीप अन्जुम
इल्तिफात- वफ़ा ,दोस्ती
नाकस - मूल्यहीन ,घटिया
नफस -आत्मा ,सांसें
नादारी- गरीबी
तारीक -अँधेरा
हिजरत -लम्बी यात्रा
गिर्दाब -तूफान
आसिम - दोषी ,पापी
अस्बाब - सबूत ,कारण
अशफाक -सहारा ,अनुग्रह ,कृपा
फिरदौस -जन्नत
तिश्नगी - इक्छा ,अभिलाषा ,ख्वाहिश
उरूजे अंजुमन -महफ़िल की भलाई ,कल्याण
नालिश -आरोपी
पारदारी -नाइंसाफी , पक्षपात
असास -नींव ,ज़मीन
आराइश- सजाबट
Wednesday, July 8, 2009
कोई बिहारी
बेरहम सियासत
एक माँ
असहाय बुढापा
बिखरता बचपन
नासमझ अमीरी .....
दुखियारी गरीबी .............
Tuesday, July 7, 2009
एक ख़ुशी मेरे लिए भी खरीद लाओ कोई
ओढ़ लीं है हमने खामोशियों की चादर
अब मुझे सोते से ना जगाओ कोई
बिक रही है खुदाई सस्ते दामों पर बाहर
एक ख़ुशी मेरे लिए भी खरीद लाओ कोई
-कुलदीप अन्जुम
Monday, July 6, 2009
मेरे गाँव की ...पगडंडियाँ ............
मुझे याद है अब तलक
वो मेरे....
गाँव की पगडंडियाँ
आडी , तिरछी , बेतरतीब
सरपट दौड़ लगातीं हुयीं
मंजिलों को .......
छूने को बेताब
रास्ते में पड़ती
आम और नीम की
ठंडी छाँव
और धूप में बच्चों के
जलते पाँव
छाव के नीचे पूछना
पथिको का
एक दुसरे का
हाल और चाल
देते हुए
इंसानियत का परिचय
पूरी आत्मीयता के साथ
दिल मिलाने की प्रकिया
बिनामिलाये हाथ
किसी बाबडी के पास
गुड चने की महक
और सत्तू कीसोंधी खुसबू
घोलती है फिजाओं में मिठास
आज भी बुलाती हैं मुझे
मेरे गाँव की ..........
पगडंडियाँ
वो आम की अमराईयाँ
कूकती कोयल
पेडों से लिपटकर
खेलते बच्चे
और फिरअचानक ही......
पके आम के
टपकने की आवाज़
खेल में व्यवधान
और आवाज़ की ओर
एक सरपट दौड़
जिसे ना मिले ......
उसका होना निराश
और करना
इंतजार
चारो तरफ लगाये हुए कान
मुझे याद आ गया
मेरा बचपन .....
वो मेरा आँगन
और वो ...
छमकता
बरसता सावन
आज के
तेज़ सफ़र में
द्रुतगामी ......सडको से
उड़ती हुई धूलने
भर दिए हैं मेरे फेफडे
साँस लेना भी दूभर हो रहा है
इन मैली फिजाओ में
वावडियो की जगह
रेस्टोरेंट्स ने ले ली है
और छाँव की जगह
ऐ .सी. हैं
जहाँ खाना तो बेहतरीन है
पर कोई नहीं .......
पूछने वाला है हाल
ना गुड चने वाली खुसबू
है ना सत्तू की महक
मुझे खिंच लेती हैं
बरबस ही
मेरे गाँव की...........
पगडंडियाँ
और आम की अमरायियाँ
याद करके बचपन
आज भी महक जाता है
"अन्जुम " का मन
- कुलदीप अन्जुम
Saturday, July 4, 2009
कुछ फुटकर शेर
दोस्तों ये शेर कोई खास नहीं हैं बस आपको पढाने का दिल किया तो यहाँ तक ले आयाकेवल भावनाओ को समझियेगा
बैठे हैं मस्जिदों में खुदाई का कफ़न ओढे
कैसे करते हैं इमामत जानता हूँ
दोस्तों छोड़ दो मूझे चले जाओ कहीं दूर
दोस्ती में छिपी है अदावत जानता हूँ
पिछली महफ़िल में मिला था वो बड़ा ही मुस्कराकर
पड़ गयी अब उसको मेरी जरुरत जानता हूँ
आज वोह सारा दिन मेरी फिकर लेते रहे
यही है उनका अंदाजे शिकायत जानता हूँ
यूँ ही कोई किसी पर मुफ्त में मेहरबां नहीं होता
क्यों कर रहा है वो मुझपे इनायत जानता हू
लोग मिलते हैं यहाँ चेहरे पर चेहरे लगाकर
किसके दिल में है कितनी शराफत जानता हूँ
जी चाहता है बन जाऊ सियासतदां देखकर आलम
कैसे बनाते हैं माहौल ऐ नफरत जानता हूँ
अन्जुम कैसे सुन लूँ मैं तेरे दिल की सदा
अब तो मैं भी मोहब्बत है एक तिजारत जानता हूँ
- कुलदीप अन्जुम
Friday, July 3, 2009
बस मौन ही प्रतिकार है
माँ अब अक्सर
खामोश रहा करती है
भटकती रहती है शून्यता
उसके चेहरे पर
एकदम शांत
निस्तब्ध
पूछ ही बैठाएक दिन
जिज्ञासा के सबब
एकाएक ये कैसा परिवर्तन
विचारो का इस भांति विसर्जन
अब न ही कोई विरोध
न ही कोई प्रतिरोध
कोई हलचल क्यों नहीं
कोई चर्चा क्यों नहीं
जैसे ख़त्म हो गयी हो
सृजनान्त्मकता
आत्मा की मौलिकता
क्या मान बैठी हो हार ?
बुदबुदा उठे उनके होठ
कुछ अनमने पन से
की हालात नहीं बदले तरीका बदल गया है
अब मेरे जीने का सलीका बदल गया है
अब नहीं शब्दों कि मनुहार है
बस मौन ही प्रतिकार है
हाँ अब मौन ही प्रतिकार है
- कुलदीप अन्जुम
Thursday, July 2, 2009
अरसे तक खुद से ही अनजान रहा था
यूँ तो मैं जानता हू सारी दुनिया को अब
पर एक अरसे तक खुद से ही अनजान रहा था
हंस दिए थे हम एक बार उनके कहने पर
कहने को अपना उनपे ये अहसान रहा था
-कुलदीप अन्जुम
जिंदगी है ख़ुशी के दो पल जाना !
टूटना ,संभलना , फिर बिखर जाना
ज़िन्दगी के पल ख़ुशी से गुजर जाना !
हंस लो दो पल खुदा की मर्ज़ी से
वैसे तो है ये मौत का सफ़र जाना !
आते जाते लोग रास्ते में मिलते हैं
कोंई न किसी का हमसफ़र जाना !
जी नहीं सकते यूँ ही चुपचाप से
ज़िन्दगी इतनी भी न मुक्तसर जाना !
-कुलदीप अन्जुम
Subscribe to:
Posts (Atom)