बदलाव वक़्त कि ज़रुरत है
ज़िन्दगी ने यही सिखाया है
सब बदल गए
हवा , पानी , रुत औ फज़ाएँ
शायद बदल गया
अक्से गुनाह भी ....!
सुबह दफ्तर जाते वक़्त
एक वृद्धा देखी थी
ज़र्ज़र ,मलिन , धूसरित काया
माँस कहाँ ख़त्म
हड्डियाँ कहा शुरू ..
कुछ पता नहीं !
ज़िन्दगी से इसकदर अनमनापन
स्टेशन के एक कोने में
इतना बेबसपन...
मानो खुद के वजूद को ललकारती
इंसानियत को दुत्कारती
हर मुसाफिर को घूरती
जारी थी एक अबूझ सी खोज
ना जाने कब से
आखिर मदद के के हाथ
इतनी आसानी से तो नहीं मिलते ...!
मैंने भी डाली
एक बरबस सी
ठंडी निगाह......
और फिर ज़िन्दगी ने
जोर का धक्का दिया
शाम को वक़्त जब कुछ ठहरा
तन्हाई ने दामन थमा
तो आंख शर्म से झुक गयी
ना जाने क्यूँ लगा
कि
गुनाहगार तो मैं भी हूँ
उस बेरहम खुदा के साथ.........!!
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