आजा ज़िन्दगी आज फ़िर तुझे पुकारता हूँ मैं ,
कि राही फ़िर अकेला है...........
Friday, September 17, 2010
साँस तो उधार हो चुकी ..
आदमी कि हार हो चुकी हर गली बजार हो चुकी अब ख़ुशी क नाम भी नहीं जिन्दगी गुबार हो चुकी आ गयी ये कौन सी घडी भूख कारोबार हो चुकी है खुदा को क्या पता खबर मौत रोजगार हो चुकी हम जियें तो कैसे फिर जियें साँस तो उधार हो चुकी - कुलदीप अंजुम
हम जियें तो कैसे फिर जियें
ReplyDeleteसाँस तो उधार हो चुकी
Bahut sundar likha hai...waise ham is duniya me aate hee hain,to udhar kee saansen leke,haina? Kewal ginti pata nahi hoti!
Ye udhari bhi pata nahi kab khatm ho jaye! Kya khoob likha hai!
ReplyDeleteबड़ी गहरी,दिल को छू लेने वाली बातें हैं ,
ReplyDeleteखूबसूरत ग़ज़ल ,उम्दा अशआर,
बहुत बधाई!
aaj aapko padhne ka mauka mila
ReplyDeletebahut hi gahra or utkrist lekhan hai aapka
is pankti" है "kuch alag sa lag raha hai
baki kisi mein bhi nahi hai islie ..
आ गयी ये कौन सी घडी
भूख कारोबार हो चुकी है