Friday, September 18, 2009

हमारे दामन में तो केवल दिलो की निस्बत थी ...



जब तक मैं रस्ते में था, हर शक्श मेरा अपना था
जो मिले मुकाम पर उनकी आँखों में बड़ी गैरत थी

फिरते रहे लेकर नफ़रत औ हवस , शहर ब शहर
और आज कह रहे हो कि वो भी एक हिजरत थी


कोई मुझे बताये कि आखिर मैं हँसता क्यूँ नहीं
मैं पिछली बार जब हंसा था वो शबे फुरकत थी

सुना है खुदा भी अब हो गया है बेपरवाह बेमेहर
एक अरसे से हमने भी ना मांगी कोई मन्नत थी

तुम्ही बताओ हम कैसे अमीर हो जाते अन्जुम
हमारे दामन में तो केवल दिलो की निस्बत थी

- कुलदीप अन्जुम


4 comments:

  1. बहुत सुंदर भावपूर्ण गजल के लिए हार्दिक बधाई

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  2. विपिन जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया कि आपने अपन कीमती वक़्त हमें दिया

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  3. शशि जी
    जर्रा नवाजी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
    आपने वक़्त दिया
    मैं आभारी हूँ

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