आज फिर उसी दरबार में हैं अष्टावक्र
फिर से हो हा कर हंस पड़े उदंड दरबारी
फिर लज्जित हो गए हैं जनक
अष्टावक्र इस बार नहीं दुत्कारते किसी को
नीचा कर लिया है सर
शायद समझ गए हैं
दरबारियों की ताकत
जनक की मजबूरी
चमड़े की अहमियत
और ज्ञान की मौजूदा कीमत !
- कुलदीप अंजुम
सुन्दर सृजन ,आभार .
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारकर अपना स्नेह प्रदान करें.
वाह..
ReplyDeleteक्या बात है..
अनु