Monday, August 27, 2012


आज फिर उसी दरबार में हैं अष्टावक्र  
फिर से हो हा कर हंस पड़े उदंड दरबारी
फिर लज्जित हो गए हैं जनक 
अष्टावक्र इस बार नहीं दुत्कारते किसी को
नीचा कर लिया है सर 
शायद समझ गए हैं
दरबारियों की ताकत 
जनक की मजबूरी  
चमड़े की अहमियत 
और ज्ञान की मौजूदा कीमत !

- कुलदीप अंजुम 

2 comments:

  1. सुन्दर सृजन ,आभार .

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारकर अपना स्नेह प्रदान करें.

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  2. वाह..
    क्या बात है..

    अनु

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