Monday, August 3, 2009
कलियुग का रावण हूँ..........
आज सागर........
मुफ्त में ही अकड़ रहा था ।
बौखलाया हुआ.....
सा दीख रहा था ॥
देख कर आलम
बात कुछ भी ...
समझ नहीं आई
अंत में ......
दे ही दी .....
मैंने उसको उसकी
विशालता की दुहाई
कहा ....
सुनो
ऐ देवता ऐ गहराई
तुम तो मर्यादा के प्रतीक हो
कहां गयी तुम्हारी ......
गंभीरता ?
क्यों धारण कर रखी है ..........
अधीरता ?
कितने बदल गए हो तुम ?
वोह अब खामोश हो गया
और धीरे से बुदबुदाया
मैं हूँ वही वीर ....
जिसने कर दिया था
राम तक को अधीर
क्या मैं ही बदला
नहीं बदले तुम .........?
क्या अब भी ...
वही मर्यादा पुरुषोत्तम हो....?
अब मैं मौन था ...
की जेहन में ....
जबाब कौंधा ....
" मैं तो
कलियुग का रावण हूँ
बल बुद्धि से युक्त
किन्तु.....
विवेक से हीन ........" ॥
-कुलदीप अन्जुम
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अंजुम ..आपकी हरेक रचना की कायल हूँ ...!
ReplyDeleteसागर और गगन ,दोनों सदियों से वैसे ही हैं ...मौसम मौसम की बात है ..तब तो पूरी क़ुदरत बदलती है ,हैना ? जानती हूँ , ये प्रतीकात्मक है ...फिरभी . ..
और उसके पहले वाली रचनाका तो क्या कहना ..!
क्या जान सकती हूँ,की,आप अपने आप में ही क्यों गम रहते हैं...ज़माने में दर्द बिखरा पड़ा है...एक तो होगा,जो आपकी बात सुनेगा...एक तो होगा,जिसकी बात पढ़के आपको अच्छा लगेगा...! अन्यथा लें..आप लिखते इतना अच्छा हैं..इसलिए चाहती हूँ, आपको पढ़ा जाय...!
भाई बैकग्राउड के काले रंग और कविता के लाल अक्षरोँ के कारण कविता पढ नहीँ पा रहा।
ReplyDeletehttp://yuvaam.blogspot.com/p/katha.html?m=0