(माफ़ कीजियेगा ये मेरी पहली रचना थी ,जो आज से करीब २ साल पहले मैंने लिखी थी ,इसलिए अनगढ़ पन स्पष्ट परिलक्षित होता है )
मयकदे में चैन अब मिलता नही है,
तेरे दामन का सहारा चाहता हूँ ,
हे प्रिये ! मैं मुस्कुराना चाहता हूँ
अब नही मुझको यकीं इन सब्जबागों में कहीं,
चैन अब मिलता नही रंगी खयालो में कही,
अब तो बस रुस्बायिओं में डूब जाना चाहता हूँ ,
सो रहा हूँ गर्दे-ग़म में मैं दबा एक वक्त से,
मानकर कुदरत की मर्ज़ी और ख़ुद के लुफ्त से,
अब मैं काफिर वक्त को भी आजमाना चाहता हूँ ,
मायने क्या हैं वफ़ा के ये मुझे आता नही ,
हो गई है इन्तिहाँ अब ग़म सहा जाता नही,
किसी भी रस्म में बंधकर मुझको अब नही जीना
अब तो हर अंदाज बस मैं सूफियाना चाहता हूँ ,
मैं तो "अंजुम " तैरकर भी डूब जाना चाहता हूँ
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