Saturday, November 21, 2009

खून का रंग..............

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चलिए बता ही देता हूँ
आज अपनी कुछ पहचान
मैं एक नामचीन सड़क
के किनारे पर
रहता हूँ सपरिवार
बपेशा एक दिहाड़ी मजदूर
वैसे तो जब तक मैं जवां था
गुमां रखता था खुद्दारी का
कमाता खाता खानाबदोश
चल ही रही थी जिंदगी
यकाएक वक़्त की मार
और बूढी काया
ढह गयी बीमारी की
मद्धम बरसात में
तन से निकम्मा होकर
जब खाने के लाले पड़े
भूखे बच्चे तडपने लगे
तो एक दिन
बेचकर अपनी गैरत
बाज़ार से खरीद लाया
कुछ रोटियां
लगाकर घर की इज्जत पर दाव
पर मैं उन्हें चाहकर भी
न निगल सका

उन बची रोटियों को
जब मसीहा ने अपने
निर्मम हाथों से निचोड़ा
आने वाले कल में
तो उनमे से निकला खून
स्याह्पन लिए हुए
लाल खून
जिसकी चमक इतनी फीकी
कि वो किसी को भी,
शर्मिंदा न कर सकी

- कुलदीप अन्जुम

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Wednesday, November 18, 2009

बात परदे से तसन्नो के झलक जाएगी -यासमीन हमीद साहिबा

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करिया ऐ दर्द पे दीवार उठाये रखना
साख जब बन ही गयी है तो बनाये रखना

रहगुज़र पर न सही तेज़ हवाएं हैं अगर
घर के अन्दर तो चरागों को जलाये रखना

नागहाँ कोई न आसार मिटा दे इसके
नक्श एक और पशे नक्श बनाये रखना

बात परदे से तसन्नो के झलक जाएगी
इसलिए जख्म तहे जख्म छुपाये रखना

मौसमे खुश्क में खुशबू का तसब्बुर तो रहे
ताक में फूल की तस्वीर सजाए रखना

- यासमीन हमीद साहिबा


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Thursday, November 12, 2009

मोहतरमा शांति सबा की कुछ गजलें.....

उसको आना है और बेनकाब आएगा
जब तमन्ना पे मेरी शबाब आएगा

ज़ुल्मतों के पुजारी कहाँ जायेंगे
जब चमकता हुआ आफ़ताब आएगा

आजकल मुझसे वो बात करता नहीं
और अब क्या ज़माना ख़राब आयेगा

रंग लायेगा जब खून मजलूम का
वो ज़माना भी जल्दी जनाब आएगा

जुल्म के ताने बाने बिखर जायेंगे
वक़्त लेने जब अपना हिसाब आयेगा

मालिके मयकदा रिंद हो जायेंगे
मैकदे में नया इन्कलाब आएगा

साथ उसके सिवा कोई देगा नहीं
जब सबा का जमाना ख़राब आएगा

- मोहतरमा शांति सबा (मालवा, हिंदुस्तान)




जब नमाजे मोहब्बत अदा कीजिये
गैर को भी शरीके दुआ कीजिये

आंख वाले निगाहें चुराते नहीं
आइना क्यूँ ना हो सामना कीजिये

आंख में अश्के गम आ भी जाएँ तो
चंद कतरे तो हैं पी लिया कीजिये

आपका घर सदा जगमगाता रहे
राह में भी दिया रख दिया कीजिये

जैरे पा हैं समंदर की गह्रयियन
अब साहिल पे भी तजुर्बा कीजिये

- शांति सबा साहिबा



हम मोहब्बत का जाम लाये हैं
जज्बा ऐ अहतराम लाये हैं

हम सबा आप सबकी खिदमत में
मालवे का सलाम लाये हैं

- शांति सबा साहिबा

Friday, November 6, 2009

ख़ुद अपने गरीबां को चाक किए बैठा था...


ख़ुद अपने गरीबां को चाक किए बैठा था
चुपके चुपके ही सभी अश्क पिए बैठा था

मुस्कुरा देता था वो हर एक खुशी पे मेरी
दिल के इक कोने में सैलाब लिए बैठा था

उसकी तकलीफों ने सब होशो ख़बर छीन लिया
लोग कहते रहे वो फ़िर आज पिए बैठा था

यूँ लगाता रहा मरहम वो मेरे जख्मों पर
और ख़ुद अपने सभी जख्म सिये बैठा था

वक्त जालिम का उसपे कुछ असर ही नही
वो तो हर लम्हा ही इक उम्र जिए बैठा था

- कुलदीप अन्जुम

Tuesday, November 3, 2009

इक बार बयां की सच्चाई ....................................


इक बार बयां की सच्चाई
जुबां में छाले अब तक हैं

आग लगे इक अरसा बीता
रंग घरों के काले अब तक हैं

फाकाकश के मुंह में जाने को
बेचैन निवाले अब तक हैं

जो जख्म दिया है अपनों ने
उस दर्द को पाले अब तक हैं

वजूद बचाने को दुनिया में
हम खुद को ढाले अब तक हैं

छोड़ दिया तो लौटना क्या
मेरे दर पर जाले अब तक हैं

नज़्म लिखू या ग़ज़ल कहूँ
क्या चाहने वाले अब तक हैं

-कुलदीप अन्जुम